बहसतलब : रचना और आलोचना का सवाल :६: सुबोध शुक्ल





रचना और आलोचना के रिश्ते पर संवाद की इस कड़ी में अध्येयता, अनुवादक युवा सुबोध शुक्ल ने इसके द्वंद्व  की जटिलता के सरलीकरण की प्रवृति से बचते हुए, इसके कई आयामों पर ध्यान दिया है. यह लेख इस बहस को आगे ले जाती है और एक मजबूत सवाल छोडती है कि हम आलोचना की अपनी परम्परा से इतने विमुख क्यों हैं?. उसे रूपवादी कह कर कब तक उसके मन्तव्य से बचते रहेंगे. इसके साथ ही आलोचना की गहरी जिम्मेदारी का एहसास भी सुबोध को है. इसके लिए आवश्यक बौद्धिक परिश्रम यहाँ साफ दिखता है. 


 हिंदी आलोचना का समकाल : दावे और दर्द  
(हाशिए पर लिखा गया एक रफ ड्राफ्ट)

सुबोध शुक्ल

एक सजग रचना, अपने युग-संवेग का ज़िम्मेदार बयान होती है और एक सतर्क आलोचना, उस बयान की ईमानदार गवाही. यहाँ इस आलेख में  उस अकादमिक मनोविनोद और बौद्धिक अटकलबाजी  से परहेज़ किया गया है जो रचना और आलोचना की समरूपता,  उनके ऐक्य और अभेद  की सेमिनारी बातें  करती है. यहाँ मात्र उस आम व्यावहारिक समझ को ही प्रस्थान -बिंदु बनाया जा रहा है जो रचना और आलोचना को, साहित्य-संस्कृति की दो समानांतर  इकाइयां मानती  है. कम से कम हिन्दी भूगोल  की यही वास्तविकता है. यह अलग विषय है कि दोनों ही तकनीक,  अर्थ, और प्रभाव के लिए, एक दूसरे की आवश्यकता हैं और यही वस्तुगत निर्भरता, उन्हें अपने समय के संघर्ष और तनावों के बीच सक्रिय रखती है. युगीन मर्यादाओं और अनुभवों के प्रति यही पूरकता का भाव, हमेशा उन्हें सावधान  भी  करता रहता है. साहित्य  को जानने-बूझने के जिन दो ध्रुवों ने, हिन्दी विचार-जगत को प्रभावित किया, उनमें एक है- रचना और आलोचना का समाज-संस्कृति के जातीय संस्कारों से जुड़ाव और उनको विकासमान वर्तमान के प्रति जवाबदेह बनाना  और दूसरा- विरासत और परम्परा के सवालों पर पनपे, तमाम विवादों के बीच रचनाधर्मिता के खांटी मुहावरे की खोज.

रचना और आलोचना का सवाल हिन्दी सृजनधर्मिता के सबसे कठिन सवालों में से एक रहा है. ये एक तल्ख़ आवेग के साथ-साथ, आक्रामक सह-अस्तित्व का भी  ऐसा सवाल है जो हर दौर में आपसी अंतर्द्वन्द्व का कारण बनता रहा है. आज भी यदा-कदा, रचना और आलोचना के पारस्परिक अंतर्संयोजन में, एक मनमुटाव और वर्चस्व  की मंशा उभर कर सामने आ ही जाती है. इसके पीछे के कारण कहीं न कहीं सामाजिक और अकादमिक आचारशास्त्रों के वे अन्तःसंघर्ष भी हैं जो सिद्धांतों, आदर्शों और परम्पराओं की मनमानी राजनीति को अड़े रहते हैं जिससे कि रचना और आलोचना का आत्मीय रिश्ता चिढ, आवेग और उदासीनता से भरता रहता  है.

कहने-सुनने में आलोचना पर रचना के लगाए गए तीन सामान्य आरोप हैं- आलोचना का ज़रूरत से ज्यादा मौजूद होना, दखलंदाज़ चरित्र और रचना के पाठक तक सहज प्रवाह में एक दंडाधिकारी की तरह आड़े आ जाना. इसीलिये रचना और आलोचना पर बहस करते हुए यह धारणा बेमानी नहीं कही जा सकती कि अपनी मौजूदा और अर्जित परिस्थितियों में, वे एक-दूसरे के साथ व्यवहार कैसा कर रहे हैं.? क्या संवाद की आपसी संभावनाओं में, मूल्यों और पहलुओं की शिनाख्त हो पा रही है? या फिर दोनों ही अपने ही तरह की नकली मुद्राओं वाली आत्मसंतुष्टि के घेराव में कैद हैं. असल में आलोचना, रचना को उसके भौतिक आशयों में जांचने-परखने का एक आग्रह है. किसी भी भावुक वफादारी से दूर, वह रचना का सोद्देश्य और बुनियादी मानचित्र गढ़ती है. यह मानचित्र ज्यादातर रचना के अपने सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मानसिक संगठन को चिन्हित करते हैं. लेकिन होते ये अपने आप में कच्चे खाके ही हैं क्योंकि  आलोचना का काम टीका का नहीं है और न ही वह रचना का कोई  सुविधावादी संस्करण है या सरलीकृत पाठ. आलोचना की भूमिका रचना के अंदरूनी निर्वातों और  अनगढ़ सौंदर्यबोधों  का उत्खनन करना है. और यही वह बिंदु है जहां पाठ और व्यक्तित्व के बीच का अंतर्विवेक उभर कर सामने आता है और रचना को  उसकी नैसर्गिकता तक पहुंचाता है.

आलोचना की यह समूची प्रक्रिया रचना के भीतरी इतिहास और संस्कारों को एक वैज्ञानिक अनुशासन के साथ देखने की भी  है. यह वैज्ञानिकता आलोचना के रचनाधर्मी मंशाओं को समझने का पहला टूल है. और चूंकि विज्ञान पूर्वाभास और परिकल्पना के दोआब पर खड़ा होता है इसलिए रचना के परिवृत्त में आलोचना के भी अपने स्वप्न और दावे होते है. नई समीक्षा के महत्वपूर्ण चिन्तक  नॉरथ्रोप  फ्री ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘एनाटॉमी ऑफ क्रिटीसिज्म’ में आलोचना और रचना की पारस्परिक संगति  की चूल बैठाने के लिए दो पदों का प्रयोग किया है- सांस्कृतिक बोध (cultural wisdom) और अप्रत्यक्ष प्रस्तुति (presentation of invisible). नई समीक्षा, अप्रत्यक्ष प्रस्तुति को  रचना के चरित्रगत ढाँचे के  हिडिन एजेंडा और सांस्कृतिक बोध को परम्पराओं के  कन्फेशन  के रूप में विवेचित करती  है. असल में रचना एक सांस्कृतिक मिक्स्चर है और आलोचना, उस मिश्रण का अलग-अलग प्रासंगिकताओं, व्यवस्थाओं, शक्तियों और समाज की बुनियादी हलचलों के आधार पर किया जाने वाला एक वर्गीय कर्म. यह उसकी वर्गीय चेतना  ही है कि वह हर युग-चेतना के आलोक में समाज,राजनीति और तमाम अवधारणाओं को मांजती-परखती है. एक तरह की सभ्यता-मीमांसा. यही वजह रही कि ‘इतिहास, रचनाकार और सांस्कृतिक सन्दर्भों से दूर रचना के  एकाकी पाठ[i] का नई समीक्षावादी विमर्श, आलोचना का व्यापक स्वर बनने से चूक जाता है. और समाज, संस्कृति  और रचनाकार से रचना का विस्थापन, पाठ के शिल्प में उस सर्वसत्तावादी निरंकुश चेतना को जन्म देने लगता है, जहां रचना और आलोचना के मैत्रीपूर्ण रिश्ते, अधिकार की प्रतियोगिता में तब्दील हो जाते हैं. ऊपर मिक्स्चर की बात की गयी थी. यह मिक्स्चर रचना के मैकेनिज्म में एक रासायनिक उत्पाद का काम करता है जो देशकाल के सांस्कृतिक-राजनीतिक मुहावरों के बीच, रचना में जीवन और जीवन में रचना के नुक्ते को ठीक-ठीक जगह लगाता रहता है.

शायद यही वजह रही होगी कि उत्तर-संरचनावादी माडल ने रचना की जगह पाठ को सर्वाधिकार दिये. केंद्र और हाशिए के बहुपरती नज़रियों  का जन्म हुआ. पाठान्तार्गत  अभिव्यक्ति में अंतर्विरोध और अनिर्णय के अंतहीन सिलसिले को मजबूती मिलनी शुरू हुई. आलोचना की  मानकीकृत अवधारणाओं और आत्मतुष्ट कसौटियों को चुनौती दी जाने लगी, यहाँ तक कि  उन्हें खारिज़ भी  किया जाने लगा. यह रचना  और आलोचना की परम्परागत विकास-यात्रा का चौंकाने वाला पटाक्षेप था. अब रचना को एक माल की तरह और आलोचना को उस माल के ब्रांड टैग और मार्केटिंग एजेंट के रूप में भी देखे जाने लगने के खतरे बढ़ गए. कमोवेश हुआ भी यही.

विचारधाराओं के दुनियावी फैलाव का प्रभाव, भारतीय मनःस्थितियों के ऊपर और खास तौर पर हिन्दी साहित्यालोचन पर तब पड़ता है जब वार्ताओं और बहसों के तौर पर उनकी मौजूदगी, एक नौसटैल्जिक कार्निवल की तरह रह जाती है. फिर चिंतन और मनन का स्थान सम्मोहन और हड़बड़ी से भरा जाता है और ज़रूरत-सहूलियतों के नाम पर  औपचारिक रूप से हवा-बाँधने का काम प्रारम्भ होने लगता है. खैर इससे साहित्यालोचन में पाठधर्मी प्रयोगधर्मिता  तो बढ़ती ही है, साथ में  विरोधाभास, अस्थायित्व और संभ्रम भी. आलोचना को रचना मानकर चलना अब भी हिन्दी सृजनशीलता के लिए सामान्य अनुभव का विषय नहीं है. इसे बड़े झिझक के साथ स्वीकार किया जाता है- वह भी कुछ गढ़े गए सैद्धांतिक मतवादों की उपस्थिति के कारण.

आज भी आलोचना एक मध्यस्थ की भूमिका में ही अधिक है. इसकी बड़ी वजह है आलोचना के चरित्र का व्यापारिक होते जाना. अधिक से अधिक कृति-केंद्रित अथवा व्यक्ति-केंद्रित बनते  जाना. मेरा मानना है कि एक जागरूक आलोचना अपने साहित्येतर मूल्यबोधों और कला-वर्गों को, रचनान्तार्गत  एक वैकल्पिक ज़रूरत के रूप में रेखांकित करती है. कृति और पाठ में यही संवैधानिक भेद है कि जहां पाठालोचन, विचारधाराओं के समाजशास्त्र में, रचना को स्वायत्त करता है वहीं कृतिगत आलोचना, एकायामी चिंतन के ठहराव और ठंडेपन से ग्रस्त होती है. कृति का पाठ में तब्दील न हो पाना (कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो) हिन्दी आलोचना के विकास की बड़ी रुकावट है.

मूल्यांकन और व्याख्यावादी विमर्श ने भी आलोचना को कमोवेश कुंजी की शक्ल दे डाली है. यह बात भी नकारी नहीं जा सकती कि आलोचना के अंतर्गत, रचनाधर्मी वातावरण की  लगभग सभी  प्रक्रियाओं का समावेश हो जाता है  पर साहित्य में टुकड़ों की तरह फ़ैली टीकाओं, भाष्यों, शब्दार्थ-विवेचना, समीक्षा और भाषणों को कुल मिलाकर ‘आलोचना’ कहा जाने लगना, उसके सन्दर्भ और उपस्थिति को बौना कर देता  है. वाल्टर बेंजामिन इसे ‘साहित्य का फासिज्म’ कहते थे- जब कोई सिद्धांत अपने निकटवर्ती सिद्धांत पर मुलम्मे की तरह चढ कर उसे मैं कह कर पुकारने लगे तो समझ लेना चाहिए कि समाज के आतंरिक-अनुशासन की जड़ें खोखली हो रही हैं.[ii]

आज भी हिन्दी क्षेत्र की आलोचना-पद्धति को निरी विधा के रूप में ही पहचाना जाता है, किसी वस्तुनिष्ठ चिंतन-प्रक्रिया के रूप में नहीं. आलोचना के मुद्दे पर विधा का सवाल कलापरक और लोकप्रिय माध्यमों वाला ज्यादा है. पश्चिमी-आलोचना पद्धति में विधा (genre) शब्द का प्रयोग तकनीक, संचार और कलापरक साधनों के मध्य आतंरिक संगति के सूत्र के  बतौर किया जाता  है. किन्तु साहित्यालोचन (Literary Criticism) के सवाल वहाँ भी ना तो व्यावसायिक विनिमय के सवाल हैं न ही मॉस कल्चर के प्रतिरूप के. वस्तुतः साहित्यालोचन  एक प्रतिपक्ष है जो रचना के सार्वजनिक जीवन में जनतंत्र की तरह शामिल होता है. असहमति, संभावनाओं और रचना तथा समाज के बीच के  अप्रकट मंतव्यों को वृहत्तर मानवीय और आधुनिक सरोकारों के साथ जोड़ कर देखे जाने वाला  नैरेटिव.

हिन्दी साहित्यालोचन का तीसरा कमज़ोर तत्व है- विमर्शपरक  अध्ययन पद्धति का अभाव. पश्चिम में साहित्यालोचन, डेसिप्लिन  की श्रेणी में आता है. यह  अध्ययन की वह अंतर्व्यवस्था है जो रचनाकार की इच्छा-चेतना से लेकर, पाठ की शक्ति-संरचना तक का, मौजूदा जीवन-परतों के तमाम पहलुओं का क्रिटीक तैयार करती है. इस बाबत आलोचना को बहुविधात्मक और बहुदिशात्मक होना होता है. संभवतः इसीलिये मनोविश्लेषणवादी  आलोचना रचना को कृतिकार का आत्मजगत कहती है और आलोचना को समाज का. इसीलिये आलोचक की जिम्मेदारी, किसी पूर्वनिश्चित विचारधारा से रचना के पाठ को अनुकूलित करने की न हो कर, सामाजिक  मनोजगत के दायरे में पाठ को खड़ा कर उसे ‘संदिग्ध’ करने की होती है. यहाँ उसे अपने समकाल के जीवन-विवेक की तरह काम करना होता है. सवाल खड़े करने होते हैं, सवालिया होना होता है.

लूकाच इस ‘संदिग्धता’ को ‘शक्ति संरचना के गढे  गए दायरे में समाज के अंतःकरण का अतिक्रमण करना’[iii] कहता है- सभी सार्वभौमिक नैतिकताओं और सर्वस्वीकृत ज्ञान-मीमांसाओं के छद्म को तिरोहित करते हुए. यही कारण है कि विचार एक सामाजिक उत्पाद है, कोई व्यक्तिपरक मनोविलास नहीं. किसी भी तरह से तयशुदा दावों और स्वयम्भू बोधों के आधार पर पाठ की स्थानिकता और उसके रेडिकल जवाबदेहियों को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता. यदि आलोचना, समाज के भीतर घट-बन रहे अनुभवों को, भाषा के रूप में पहचानने का प्रयास करती है तो निश्चित ही वह उसी समय,  रचना की पाठ चेतना को भी समकालीन तर्कों में, वैचारिक बनाने का प्रयास कर रही होती  है.

आधुनिक उपभोक्तावाद और बाज़ार के समानांतर कला-भेदों  के सुनियोजित विज्ञापनवाद ने भी आलोचना और रचना के बीच मनोरंजन, खबरों, और प्रचार-प्रसार के आभासी साधनों का बोलबाला बढ़ाया  है. इससे रचना की प्रतिनिधि शक्ति अंतर्मुखी हुई है और सामाजिक यथार्थ-चेतना आत्मतुष्ट कल्पनालोक की ओर मुड़ने लगी  है. फलस्वरूप आलोचना भी सब्लीमेशन की स्थिति में  है. बाज़ार की मांगों पर आधारित यथार्थ की प्रायोजित सीमाएं, आलोचना की रचना में भागीदारी वाली मुद्रा को हड़पने लगी हैं.जिसका परिणाम है- एक आयातित संवेदना के मध्य  भविष्य का  रोमान उकेरने वाली  साहित्य-भाषा और जबरन उस रोमान को जीवन के तमाम सरोकारों के मध्य यथार्थ का जामा पहनाने वाली आलोचना-भाषा.

कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि विस्तारवादी और दबाव समूहों के बढते खतरे, आलोचना और रचना पर अपनी जकड बढ़ा रहे हैं और उनके बीच का सहज द्वंद्वात्मक रिश्ता, प्रतिस्पर्धात्मक बनता जा रहा है. इन्हीं वजहों से हिन्दी आलोचना के अपने जातीय मूल्य और विरासत के उपकरण धूमिल पड़े है. इसी सम्बन्ध से एक बात और निकलती है कि हिन्दी साहित्यालोचन में रचना की तमीज़ का  स्पष्ट या अप्रत्यक्ष प्रभाव आलोचना की सेहत  पर भी  पड़ता है.  जहाँ  हिंदी आलोचना आज भी तमाम अपवाद प्रयासों के बावजूद माध्यमों और प्रतीकीकरण की अवस्था में ही जी रही है, मात्र बयानों और गतिविधियों की  आवाजाही को ही दर्ज कर रही है; लोक ,संस्कृति और सभ्यताओं के व्यापक दायरे में उसके निकष की पड़ताल आज भी की जानी बाकी  है. क्योंकि रचना या आलोचना की संरचना के सवाल कहीं न कहीं जीवन के वजूद और उसकी हैसियत को भी झिंझोड़ते हैं .

     


[i] "a close and detailed analysis of the text itself to arrive at an interpretation without referring to historical, authorial, or cultural concerns"   - Ransom, John Crowe. The New Criticism. New York: New Directions, 1941.
[ii] Walter Benjamin – Illuminations (1955)
[iii] George Lukacs - The Meaning of Contemporary Realism, 1957


सुबोध शुक्ल : इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आजादी के बाद की हिन्दी कविता पर शोध संपन्न, आधुनिक सामाजिक  और सांस्कृतिक विमर्शों में दिलचस्पी और इन्हीं विषयों से संबद्ध एक किताब शीघ्र प्रकाश्य,फुटकर आलोचनात्मक आलेख और अनुवाद- आलोचना,तद्भव,बहुवचन और पूर्वग्रह आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित .
फ्रांज़ फेनन के एक लेख का अनुवाद यहाँ पढ़ा जा सकता है. 


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  1. सुबोध शुक्ल ने हिन्दी आलोचना की बनती सीमाओं को रेखांकित किया है।यह आलेख एक सुचिंतित बहस की माँग करता है।

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  2. सुंदर, सुविचारित और सुबोध।
    इस पठनीय लेख के लिए सुबोध शुक्ल को बहुत बधाई।
    इससे पहले महेश चंद्र पुनेठा और प्रभात मिश्र ने भी अच्छा लिखा था।
    शायद यह युवा आलोचना का शुभलक्षण है।

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  3. बेहतरीन लेख...इसके लिए सुबोध जी को बधाई.इस मुद्दे पर विमर्श आवश्यक है..

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  4. ''आज भी हिन्दी क्षेत्र की आलोचना-पद्धति को निरी विधा के रूप में ही पहचाना जाता है, किसी वस्तुनिष्ठ चिंतन-प्रक्रिया के रूप में नहीं ''...बिलकुल !!!

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  5. Aalochana varshon tak padhate rahnae par bhi samaanytah meri nazar me aalochana ka matalab keval itana hai ki pake hue chole se aalu aur chana alag-alag kar dena.

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  6. पठनीय लेख है. बात आगे बढ़ती दिखती है, पर यह भी अनुभव होता है कि आलोचना का एक सुपरिभाषित चौखटा अभी भी दूर है. उक्ति-सर्वेक्षण से थोडा आगे बढ़ने की ज़रूरत है. आलोचना कृति-केंद्रित होते हुए भी व्यक्ति-संदर्भों से मुक्त नहीं हो सकती. भाषा-मुहावरे के "खरेपन" और जीवनानुभव की "असंदिग्धता" को रेखांकित करने के लिए कहीं न कहीं व्यक्ति-संदर्भों पर नज़र डाल लेना अपरिहार्य बन जाता है. एक-सी दिखती भावाभिव्यक्तियों के मूल्यांकन का कोई आधार तो सुनिश्चित करना ही पड़ेगा. कविता की दुनिया में "क्लोन" कवियों और कविताओं से सिलटने का कोई रास्ता भी इधर से ही गुज़रता है, शायद. इस सब का संबंध सुबोध शुक्ल के लिखे से ही नहीं है, अब तक की चर्चा से है. सुबोध को बधाई.

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  7. बहुत ही महत्त्वपूर्ण और विचारणीय आलेख। सुबोध जी ने हिन्दी आलोचना की तर्कसहित जिन कमियों की ओर इशारा किया है, वह यथार्थ है और बहस के कई मार्ग खोलता है..सच कहा कि ’आलोचना, रचना को उसके भौतिक आशयों में जांचने-परखने का आग्रह है,किसी भी भावुक वफ़ादारी से दूर’ यही होना भी चाहिए जिससे रचना और रचनाकार अपने पूरे कैनवास के साथ अपने पाठक के साथ संवाद करे...और निरपेक्ष रूप से शंकाओं,सवालों का समाधान भी ...

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  8. आलोचना पर इतनी शानदार विवेचना ......एक ही साँस में पढ़ गया .....सुबोध भाई को बहुत बहुत बधाई ....अरुण जी को हार्दिक धन्यवाद ....ऐसे अनमोल नगीने सबके साथ बाँटने के लिए !

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  9. युवा आलोचक सुबोध शुक्‍ल ने हिन्‍दी आलोचना की अद्यतन दशा पर अपना दर्द दर्शाते हुए बेशक जटिलता के सरलीकरण की प्रवृत्ति से अपने को बचा लिया हो, लेकिन बचाव की इस प्रक्रिया में वे स्‍वयं जितने अबूझ और अमूर्त होते गये हैं, वह अपने आप में कम चिन्‍ताजनक बात नहीं है।
    इस आलेख को तीन बार पढ़ जाने के बाद भी मेरे लिए यह अनुमान कर पाना आसान नहीं है कि हिन्‍दी आलोचना अपनी जिन खामियों और कमजोर तत्‍वों के कारण रचनाधर्मिता के खांटी मुहावरे की खोज में असफल रही है, इसके लिए उनकी नजर में आखिर वे कौन-सी आलोचनात्‍मक कृतियां और आलोचक जिम्‍मेदार हैं? हिन्‍दी रचनाशीलता और आलोचना के प्रति इतना नकारवादी स्‍वर रखना क्‍या उचित है?
    मेरा यह भी मानना है कि हिन्‍दी आलोचना की परंपरा और प्रकृति साथ पश्चिमी आलोचना पद्धति, नयी समीक्षा या उत्‍तर-संरचनावादी मॉडल के सिद्धान्‍तकारों की चर्चा बहुत अधिक प्रासंगिक है भी नहीं - वे चाहे नॉरथ्रोप फ्री हों,जार्ज लूकाच हों या फूको-देरिदा।
    सुबोध शुक्‍ल की अध्‍यवसाय और परिश्रम का पूरा मान रखते हुए मैं विनम्रतापूर्वक यह बात कहना जरूरी समझता हूं कि अपने विवेचन में सहज और साफगोई बरतना किसी तरह का सरलीकरण नहीं है, बल्कि इससे साहित्यिक संवाद और संप्रेषण को बल मिलता है।

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  10. नन्द जी, ............. मैं स्वयं चकित हूँ कि जिस बात का उल्लेख समूचे आलेख में ही नहीं है उसे खोजने के लिए आपने इसे तीन बार पढ़ा.हिन्दी आलोचना का लैंडस्केप बेहद उतार-चढ़ाव से भरा रहा है.कहीं-कहीं बेहद सीमित और स्थूल और कहीं बेहद केन्द्रीय और गूढ़.मैंने सिर्फ साहित्यालोचन के अंतर्गत कुछ सामान्य एवं ज़रूरी उलझनों को, सरसरी निगाह से ताड़ी जा सकने वाली चिंताओं के साथ देखने की कोशिश की है. किसी मानक को निश्चित करने की खुशफहमी यहाँ नहीं है और नामलेवा वितंडावाद की तो बिलकुल ही नहीं. आलोचना की ज़मीन को तलाशने का सवाल कहीं से भी किसी चौहद्दी को बनाने का सवाल नहीं है.
    यहाँ हिन्दी आलोचना की वर्तमान भूमिका पर कुछ संकेत किये गए हैं जैसे -
    १. उसका कृति एवं व्यक्तिधर्मी होना
    २. टीकावादी और शब्दार्थवाची होना.
    ३. विमर्शपरकता का अभाव
    ४. एवं उसका निरा विधा वाले चलताऊ बोध से आज भी मुक्त ना हो पाना.
    इन तमाम स्थितियों को पश्चिमी आलोच्नाशास्त्र के बरक्स रख हिन्दी आलोचना में वस्तुनिष्ठ विचार-बोध की कमी को मैंने इंगित किया है. जहां तक मेरी समझ है आलेख में किसी अतिवादी उपकरण का इस्तेमाल भी नहीं हुआ है.
    और नकारवादी होना विषादवादी होना नहीं है. पक्षधरता और प्रतिरोध के मुद्दों पर नकार एक मूल्य की तरह भी है.
    और अबूझ-अमूर्त होने के सवाल बेहद सापेक्षिक हैं. मैं इस पर कुछ नहीं कहूँगा.

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  11. सुबोधजी, आपकी अध्‍ययनशीलता, बहुज्ञता और तार्किकता का मैं कायल हूं, लेकिन हिन्‍दी रचनाशीलता और आलोचना के साथ चार दशक का मेरा भी साझा है, साहित्‍य की रचना-प्रक्रिया पर काम करते हुए उसे करीब से जाना समझा है, इसलिए जब कोई आलोचना की समूची विरासत को नकारने का स्‍वर अख्तियार करता है, तो स्‍वाभाविक रूप से चिन्‍ता होती है। हिन्‍दी की रचनाशीलता और उसकी आलोचना पर तो बाहर से हमला करने वालों की पहले ही कमी नहीं है, इधर नये विवाद से क्‍या दशा होनी है, कहना मुश्किल है। मुझे हिन्‍दी आलोचना के लेण्‍डस्‍केप में तमाम उतार-चढावों के बावजूद एक विकास दिखाई देता है और इसकी बहुत लोगों ने विस्‍तार से व्‍याख्‍या की है। रचना और आलोचना यों भी एक-दूसरे का साथ निभाती हुई आगे बढती है, ऐसा संभव ही नहीं है कि रचना तो विकसित हो और उसकी आलोचना कहीं पीछे छूट जाए। आपने जिन 4 बिन्‍दुओं का जिक्र किया है, मेरी उन्‍हीं से बुनियादी असहमति है - 1 यह कहना सही नहीं है कि आलोचना कृति धर्मी या व्‍यक्तिधर्मी हो गई है, इस प्रसंग में मोहनजी की बात ठीक है कि प्रसंगानुरूप कहीं वह व्‍यक्ति-संदर्भों से मुक्‍त न हो। 2 कुछ पाठ्यक्रम आधारित अध्‍यापकीय आलोचना से यह भ्रम हो सकता है कि वह टीकावादी या शब्‍दार्थवाची हा गई है, हिन्‍दी आलोचना की मुख्‍य धारा में ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं है। 3 विमर्शपरकता (Discourse) वैसे भी हिन्‍दी के लिए एक विजातीय प्रवृत्ति है और इसका न रहना ही उसके जातीय चरित्र की पहचान है। 4 निजी विधा वाला चलताउ बोध एक जल्‍दबाजी में ईजाद की गई टर्म है, इसका वास्‍तविकता से कोई संबंध नहीं है। इसी तरह वस्‍तुनिष्‍ठ विचारबोध की कमी भी एक मनोगत आक्षेप है। अंत में हिन्‍दी आलोचना की समृद्ध विरासत को याद दिलाने में अगर कुछ नामोल्‍लेख करना जरूरी हो जाय तो मुझे उसमें किसी तरह का वितंडावाद नहीं दीखता। कई बडे आलोचकों से वैचारिक असहमतियों के बावजूद रामचंद्र शुक्‍ल की परंपरा में हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा, अज्ञेय, मुक्तिबोध, साही,देवीशंकर अवस्‍थी, नेमीचंन्द्र जैन, निर्मल वर्मा, विद्यानिवास मिश्र, नामवरसिंह, मलयज, कमलेश्‍वर, राजेन्‍द्र यादव, केदारनाथ सिंह, विश्‍वनाथप्रसाद तिवारी, अशोक वाजपेयी, प्रमोद वर्मा, पुरुषोत्‍तम अग्रवाल, सुरेन्‍द्र चौधरी, रमेशचंद्रशाह, नंदकिशोर आचार्य, नंदकिशोर नवल, शंभुनाथ, प्रभाकर श्रोत्रिय, प्रभात त्रिपाठी आदि के आलोचनात्‍मक लेखन को अनदेखा नहीं किया जा सकता। ये मेरी कुछ विनम्र असहमतियां है सुबोधजी, जो हिन्‍दी आलोचना की रचनात्‍मकता और उसके ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित करने की दृष्टि से मुझे वयक्‍त करना जरूरी लगा। कृपया इसे अन्‍यथा न लें।

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  12. हिन्‍दी के प्रमुख सक्रिय आलोचकों में मैनेजर पाण्‍डेय, डॉ विश्‍वनाथ त्रिपाठी, परमानंद श्रीवास्‍तव, निर्मला जैन, रोहिणी अग्रवाल, विष्‍णु खरे, पी प्रमिला, मधुरेश, दूधनाथसिंह, रमेश उपाध्‍याय, डॉ जीवनसिंह, श्रीप्रकाश मिश्र, अर्चना वर्मा, अजय तिवारी, रमाकान्‍त शर्मा, नवलकिशोर, जवरीमल्‍ल पारख, रामबक्ष, माधव हाडा, ज्‍योतिष जोशी, अरविन्‍द त्रिपाठी, मोहनकृष्‍ण बोहरा, विजयकुमार, रेवतीरमण आदि को भी शामिल समझें और ये सभी लोग इस समय हिन्‍दी आलोचना में अपनी अच्‍छी-खासी साख रखनेवाले लोग हैं, जिनके योगदान को व्‍यापक स्‍वीकृति मिल चुकी है।

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  13. इसमें कोई दोराय नहीं सर कि आपने आलेख से जुड़े कुछ ज़रूरी प्रश्नों को उठाया है. संदेह इसमें भी नहीं कि आपका व्यावहारिक और ज़मीनी जुड़ाव आलोचना-रचना के मुद्दों पर मुझसे कहीं बड़ी मात्रा में रहा है. मेरी अध्ययन ज़्यादातर अकादमिक है.किन्तु लेख से जुड़े समूचे अध्ययन में मेरी मंशा हिन्दी साहित्यालोचन की समृद्ध और स्थापित परम्परा को कटघरे में खड़ा करने की नहीं थी ना ही यह मेरे विषय की सीमा और परिधि थी. मैंने मात्र आलोचना के उन समकालीन सदर्भों के भाव-विचारों की पड़ताल का प्रयास किया है जो वर्तमान शक्ति-समूहों, सत्ता-स्वरूपों, ज्ञान-मीमांसा की बोझिल और वर्चस्ववादी प्रवित्तियों के चलते हाइबरनेशन की स्थिति में हैं.
    मैं आपकी और मोहन सर की व्यक्ति-सन्दर्भ वाली बात से से एकमत हूँ किन्तु आलेख में मैंने व्यक्ति-केंद्रित होने की बात की है. ये दोनों बातें खासे फर्क वाली है.
    आज हिन्दी की सैद्धांतिक आलोचना का स्वरुप लगभग हाशिए पर है. एकाध चमक-चौंध पैदा करने वाले दृष्टांत, मुख्य-धारा को रेखांकित नहीं कर सकते. क्रितिकेंद्रित-व्यक्तिकेंद्रित-टीकावादी का आशय मात्र इतना ही है कि बिना किसी सशक्त और बुनियादी सैद्धांतिक संस्कार के लोक-संस्कृति और जातीय औचित्य को परखा नहीं जा सकता. और इसके बगैर साहित्यालोचन सिर्फ कुछ लकीरपीटू फर्मूलेबाज़ी तक सीमित रह जाती है- सूचनात्मक, गुण-दोष परक या निंदा-स्तुतिमय.
    विमर्श पर मेरी मान्यता यही है कि वह मानवीय सरोकारों का वर्गीय बोध है.. मैं इसी खांटी मुहावरे की बात कर रहा था कि हम शब्दों के कूट और आयातित अस्पृश्यता की भावना से इतना ग्रस्त होते हैं कि उन्हें अपने जन-संस्कारों से अछूता रखते है और उन्हें अपनी ही परम्परा के आलोक में परिभाषित नहीं करते . महावीर प्रसाद द्विवेदी का संपत्ति शास्त्र किंचित हिन्दी आलोचना का पहला विमर्श है. शुक्ल जी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय , मुक्तिबोध , नामवर सिंह और वर्तमान दौर में मैनेजर पाण्डेय ने विमर्श को हिन्दी की सभ्यता में परखा है. रस-मीमांसा, साधारणीकरण,लोक-मंगल (आचार्य शुक्ल), मध्यकालीन बोध,मानव-धर्म और विकासवाद और मार्क्सवाद के पारस्परिक अभेद( आचार्य द्विवेदी), अस्तित्व,क्षण और चेतना (अज्ञेय), ज्ञानात्मक संवेदन और संवेदनात्मक ज्ञान (मुक्तिबोध), साहित्य,भाषा और राजनीति के मार्क्सवादी बोध का भारतीय जनवादी चेतना में रूपांतरण( रामविलास जी) परम्परा के नए सूत्रों की शिनाख्त(नामवर जी), और व्यापक वैश्विक विमर्शों के प्रकाश में हिन्दी की सांस्कृतिक-रचनाधर्मिता को चिन्हित करने का प्रयास( मैनेजर पाण्डेय): ये वे कतिपय उदाहरण है जिनके कारण हिन्दी साहित्यालोचन अपनी उस निष्ठा तक पहुंचा है, जिस पर हम फूले नहीं समाते हैं और ध्यान रहे कि इन सभी के अपने दृढ और द्वंद्वात्मक सैद्धांतिक पक्ष हैं.
    आज ऐसी बहुदिशात्मक्ता धूमिल हो रही है या फिर अनूदित संकल्पों के साथ हिन्दी मनःस्थितियों पर थोपी जा रही है.
    इसीलिये निरी विधा कह कर मैं यह संकेत कर रहा हूँ कि वह प्रतिरोध या पक्षधर की भूमिका में ना होकर आज मध्यस्थ की भूमिका में है.

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  14. कैसी भी हेठी या मताग्रह की भावना आप तक पहुँची हो तो मुआफी चाहूँगा. मैंने यहाँ मात्र उन अंतरालों को भरने की कोशिश की है जो संभवतः आलेख में बिना पाटे छूट गए है.
    आप जैसे प्रबुद्ध और मर्मभेदी रचनाकार ने इस आलेख के ज़रिये जो तमाम इशारे किये हैं, वे गंभीर और आवश्यक है.
    बहुत आभार

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  15. आभार सुबोधजी, अब आपकी बात संतुलित लगती है। मैं मानता हूं, एक छोटी-सी टिप्‍पणी में हिन्‍दी आलोचना का पूरा आसमान नहीं समा सकता, लेकिन हमारी बात का कोई असंगत अर्थ न निकाल ले जाये, इसके प्रति भी सावधान रहना जरूरी है। आपसे और अच्‍छे विवेचन की उम्‍मीदें जगी हैं। मैं तो फ्रेंज फेनन के अनुवाद के बाद से ही आपका मुरीद था।

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  16. Main vigyan ka vidyarthi hoon kintu hindi ke prati aseem lagaav raha hai. Congrats Subodh ji. Shubhkaamna...

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  17. Nand Bhardwaj ji , aapane tamam aalochakon ka naam liya par SHIVKUMAR MISHRA ji ka naam chhod diya jabaki we aachary shukl or ramvilas sharma ki parmpara ke mahtvpoorn aalochak hain. isi tarah main samjhata hun ki Vijendra ji ka naam bhi is kadi main aana chahiye tha. kya aap sahmat hain?

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