परिप्रेक्ष्य : इस साहित्य समय में तीन हमसफर : राकेश श्रीमाल






साहित्य की दुनिया में दोस्ती के क्या मायने होते हैं ? आलोचक निर्मला जैन ने अपने तीन गहरे दोस्तों कृष्‍णा सोबती, मन्‍नू भंडारी और उषा प्रियंवदा पर एक किताब लिखी.. आगे क्या हुआ ?
कवि - कथाकार राकेश श्रीमाल की दिलचस्प रपट.


इस साहित्‍य समय में चार हमसफर 
राकेश श्रीमाल

पूरा मामला थोड़ा गंभीर रूप में मजाकिया ही बनता है. लेकिन हमारे हिन्‍दी साहित्‍य के गहरे सामाजिक सरोकार और उससे उपजी मानवीय सहजता से सीधे-सीधे संबध रखता है. यह कोई उस तरह की बहस भी नहीं है जिसको जारी रखना तर्क संगत हो लेकिन इसके घटने की रोचकता का जायजा तो लिया ही जा सकता है.

मूर्धन्‍य और वरिष्‍ठ आलोचक प्रो. निर्मला जैन ने एक नई पुस्‍तक कथा समय में तीन हमसफर लिखी है. इस पुस्‍तक पर वर्धा मे चर्चा गोष्‍ठी हुई, जिसमें अपनी रचना प्रक्रिया पर बोलते हुए निर्मला जी ने ऐसी कई बातें बताई जिसे जानना साहित्‍य के पाठकों के लिए साहित्‍य से ही अतिरिक्‍त रस-रंजकता प्राप्‍त करना होगा.

मुख्‍य धारा के लेखक-पाठक जानते हैं कि निर्मला जी कथा समय की तीन हमसफर यानी कृष्‍णा सोबती, मन्‍नू भंडारी और उषा प्रियंवदा की निकट मित्र रही हैं. इन चारों ने परस्‍पर अपने सुख-दुख को बेहद निजी स्‍तर पर बाँटा भी है. जब निर्मला जी 1956-57 में एम.ए.कर रही थी, तब से ही इस मित्रता की शुरूआत हुई. यह वह दौर था जब ये तीनों महिला कथाकारों की कहानियाँ प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थी और नई कहानी के तीनो पुरोधाओं को गई-गुजरी पत्रिकाओं में बामुश्किल जगह मिल पाती थी. साहित्‍य में बहुत गहरे तक सक्रिय इन चारों महिला मित्रों की चौकडी ने नई कहानी आंदोलन के जन्‍म पूर्व की षडयंत्रकारी मंत्रणाओं, उसकी प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष हल्‍लाबोल कार्यवाही, आंदोलन का जन्‍म ओर फैलाव इत्‍यादि को अच्‍छी तरह उस समय विशेष में जाना समझा है. योजना मोहन राकेश बनाते थे, उसका क्रियान्‍वयण का जिम्‍मा कमलेश्‍वर पर था और राजेन्‍द्र यादव इन दोनों के साथ इस त्रिमूर्ति को पूरा करते थे. यह तो सभी जानते हैं कि इन तीनों पुरोधा कहानीकारों ने एक-दूसरे पर कई-कई संस्‍मरण और तारीफों के कशीदे रचकर साहित्‍य के वायुमंडल में चकाचौंध करते उन गुब्‍बारों को जन्‍म दिया जिन्‍हें दूर से देखा तो जा सकता था, उनमें छिपी सम्मिश्रित रहस्‍यात्‍मक गैसों को पहचाना नहीं जा सकता था.

बहरहाल, इन सब साहित्यिक जी-जंजाल के समय से गुजरते हुए उत्‍तर आधुनिकता का युग देखते हुए और भूमंडलीकरण के परिवेश में कभी रचते, कभी ना रचते हुए इन रचनाकर्मी महिला मित्रों ने अपनी यारबाजी के पांच दशक पूरे कर लिए हैं. ऐसे में तीनों कथाकारों पर केंद्रित पुस्‍तक का लिखना खुद निर्मला जी के लिए जोखिम भरा काम रहा है. लेकिन उन्‍होंने तटस्‍थ रहकर इसे लिखा. इसे लिखते समय ही वे थोडा बहुत जान गई थी कि यह ठेठ साहित्यिक आलोचना उनके मित्रविश्‍वास की नींव को थोडा हिला सकती है. लेकिन उन्‍हें अपनी तीनों रचनाकार मित्रों पर यह भरोसा था कि वे इसे टीका-टिप्‍पणी के शास्‍त्रीय परिवेश में ही ग्रहण करेंगी ना कि व्‍यक्तिगत स्‍तर पर. उषा प्रियंवदा को जब यह मालूम पड़ा कि ऐसा कुछ लिखा जा रहा है तो उन्‍होंने निर्मला जी को कहा कि आप जो लिख रही हैं मैं उसे देखना भी नही चाहती. उन्‍होंने निर्मला जी को यह कहकर सावधान भी करना चाहा कि हो सकता है कि इस पुस्‍तक प्रकाशन के बाद कोई एक मित्र आपसे बुरी तरह नाराज हो जाए. क्‍योंकि किसी न किसी को तो आप दो कहानीकारों के बीच में रखेंगी ही. यानी अंतिम नाम कोई तो एक होगा. शुरूआती दौर के लगातार लेखन के बाद उषा प्रियवंदा ने बहुत ठहर-ठहर के लिखा है और इधर के पाठकों ने शायद उन्‍हें बहुत अधिक पढा भी नही है.

इस उम्र में पुस्‍तक पर काम करते हुए निर्मला जी ने फिर से तीनों को यथासंभव पढा. उन्‍होंने माना कि कई कहानियों और उपन्‍यास पर उनके विचार अब वैसे नहीं बन रहे थे जैसे कि उस समय बने थे. उन्‍होंने इस समय और अपने बदली विचार दृष्टि से उन्‍हें फिर परखा और अपना मत लिखा.

यह गौर करने वाली बात है कि साहित्‍य की एक पूरी पीढी ने निर्मला जैन की आलोचकीय दृष्टि से साहित्‍य को देखा संमझा है. वे जो भी कहती-लिखती हैं वह दो टूक ही होता है. यह बात इन तीनों वरिष्‍ठ कहानीकारों को इतनी लंबी मित्रता से समझ नहीं आई या फिर अनजाने-अनचाहे वे यही मानती रही कि उनकी मित्रता का पलडा हमेशा उनके लेखन के पक्ष में ही झुकता रहेगा. लेकिन निर्मला जी ने अपने साहित्‍य के तराजू में मित्रता के बांट रखने से परहेज ही रखा. यह उनके अपने साहित्यिक कर्म की प्रतिबद्धता ही दर्शाता है.

जब यह पुस्‍तक प्रकाशित होने वाली थी उसके कुछ दिनों पूर्व उषा प्रियंवदा भारत में ही थी. जब वे वापस जाने लगी तो निर्मला जी ने उनसे साधिकार आग्रह  किया कि वे पुस्‍तक छपने तक ठहर जाएं और पुस्‍तक साथ लेती जाएं. लेकिन उषा जी का जवाब था कि मुझे वह पुस्‍तक आप भेजिएगा भी मत. मैं उसे देखना-पढना नहीं चाहती. निर्मला जी ने जब यह कहा कि अपनी आलोचना से इतनी डरती क्‍यूं हो, तब उनका जवाब था कि अपनी आलोचना की फिक्र मुझे नहीं है, मैं दूसरों की तारीफ नही पढ सकती.

यहां थोडा ठहर लेना ही ठीक है. कभी कभी कुछ वाक्या ऐसे हो जाते है जो हमें कई अर्थों, कई सन्‍दर्भो में सोचने को विवश कर देते हैं. उपरोक्‍त वाक्या भी ऐसा ही कुछ है.

किताब प्रकाशन के बाद निर्मला जी को कृष्‍णा सोबती की यह प्रतिक्रिया मालूम पडी कि यह पूरी किताब केवल उन्‍हीं पर लिखी जानी चाहिए थी. अन्‍य अर्थ में कृष्‍णा सोबती के इस विचार में क्‍या यह निहित नहीं है कि वे अन्‍य दो रचनाकारों से अपनी तुलना को निरर्थक मानती हैं?

ये वही कृष्‍णा सोबती हैं जिनकी ए लड़की कहानी ने वर्तमान साहित्‍य के कहानी महाविशेषांक में प्रकाशित होकर तहलका मचा दिया था. और उसे फिर से पढते हुए निर्मला जी को लगा कि यह कहानी तो कृष्‍णा सोबती की अपनी जिंदगी की कहानी है जिसमें उनकी मां कृष्‍णा से इसी तरह इकतरफा बडबडाती रहती थी जैसी कि इस कहानी में दर्ज है. निसंदेह इस पुस्‍तक में भी तीनों रचनाकारों में कृष्‍णा सोबती ही अव्‍वल हैं. इस अव्‍वलता के बावजूद क्‍या यह किसी वरिष्‍ठ लेखिका की पूरी पुस्‍तक अपने पर लिखे जाने की बाल-हठ नहीं है?

अब आया जाए आपका बंटी और महाभोज की रचनाकार की प्रतिक्रिया पर. निर्मला जी और मन्‍नू भंडारी के बीच ऐसी मित्रता है कि दो दिन भी अगर टेलिफोन पर बात नहीं हो तो दोनों को लगता है कि अरसे से बात नहीं हुई. ऐसे ही एक दिन फोन पर मन्‍नू भंडारी ने निर्मला जी से कहा कि मुझे कुछ डिस्‍कस करना है. यह पूछने पर कि क्‍या डिस्‍कस करना है मन्‍नू भंडारी का जवाब था कि आपने मेरी कुछ कहानियों के साथ न्‍याय नहीं किया.

थोडा ठहरने का यह मुकाम नहीं है. मन्‍नू भंडारी की दलील थी कि मैंने जिस ध्‍येय को ध्‍यान में रखकर वे कहानियां लिखी थी, उनका कोई जिक्र इसमें नहीं है. निर्मला जी का सहज जवाब था कि मैंने मन्‍नू भंडारी की कहानियां पर कुछ लिखा है उसके लेखक के ध्‍येय पर नहीं. और यह भी कि एक पाठक को कहानी अपना जो ध्‍येय बताती है मैंने उस पर लिखा है. लिखते समय लेखक का क्‍या ध्‍येय था, उसे जानना समझना उतना जरूरी नहीं, जितनी कि खुद कहानी जो ध्‍येय व्‍यक्‍त करती है उसे समझना.

यह हमारे हिन्‍दी समाज की वरिष्‍ठतम साहित्यिक पीढी का अघोषित लेकिन सच्‍चा प्रतिक्रिया-विमर्श है. साहित्‍य की नई पीढी को इसे आखिर किस तरह लेना चाहिए? तीन हमसफर में से एक इस किताब को देखना नहीं चाहता. दूसरे को लगता है कि उसके साथ न्‍याय नहीं हुआ है और तीसरा इसे केवल अपने आप पर केंद्रित करके लिखे जाने की महत्‍वाकांक्षा को सहेजे था. निश्चित ही निर्मला जी ने इन तमाम पूर्व-शंकाओं को समझते हुए भी इस पुस्‍तक को लिखा, जो कि स्‍तुतीय है. फिलहाल इसी पुस्‍तक से निर्मला जी की लिखी एक पंक्ति से इस पर आपकी टिप्‍पणी का इंतजार करते हुए मैं विदा लेता हूँ—‘‘मन्‍नू भंडारी की रचनाओं में सहज पारदर्शिता है, उषा प्रियंवदा में ललित प्रांजलता ओर कृष्‍णा सोबती मं बहुमुखी प्राणवत्‍ता.’’

(यह बता देना शायद उचित होगा कि इस पुस्‍तक पर चर्चा में सर्वश्री गंगाप्रसाद विमल, प्रो. कुमार पंकज और डॉ. रामेश्‍वर राय ने हिस्‍सा लिया था.)






राकेश श्रीमाल ::

14/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. अच्छा लिखा है, अच्छा विश्लेषण किया है. सिर्फ़ एक सुझाव है, कदाचित असावधानीवश हुई चूक को दुरुस्त करने के लिए. "साधिकार अनुग्रह" की जगह 'साधिकार आग्रह' कर लें. फ़र्क़ आप समझते ही हैं.

    जवाब देंहटाएं
  2. चर्चा गोष्ठी पर प्रकाश डालते हुए रोचक लेख . श्रीमाल जी को बधाई !

    जवाब देंहटाएं
  3. ' लिखते समय लेखक का क्‍या ध्‍येय था, उसे जानना समझना उतना जरूरी नहीं, जितनी कि खुद कहानी जो ध्‍येय व्‍यक्‍त करती है उसे समझना. '.........यही सार है!
    रोचक विमर्श!

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन विश्लेषण. पढ़ना अच्छा लगा. बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत बेहतरीन विश्लेषण है भैया ! इस तरह के विषय से व्यक्ति उसके मनोविज्ञान और विचार उभर कर सामने आते है ! अच्छा लगा अपनी तीनो प्रिय लेखिकाओ से मिलकर ! धन्यवाद भैया !"............अपनी आलोचना की फिक्र मुझे नहीं है, मैं दूसरों की तारीफ नही पढ सकती......!"

    जवाब देंहटाएं
  6. क्या आज भी हिन्दी साहित्य में कई मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव वही मायाजाल नहीं रच रहे। यह सदा से होता आया है, हो रहा है और होता रहेगा समय के साथ सिर्फ़ चेहरे, नाम और मोहरे बदलते हैं बाकी सारे चक्र कुचक्र वही चलते हैं..बहरहाल निर्मला जी की किताब पर यह आलेख बहुत ही रोचक और किताब पढने के लिए प्रेरित करनेवाला है..साझा करने के लिए आभार भाई!

    जवाब देंहटाएं
  7. रोचक !आखिर रचनाकार भी तो एक इन्सान ही है सहज मानवीय कमजोरियों और खूबियों से युक्त!

    जवाब देंहटाएं
  8. श्रीमाल जी ! मेरा एक प्रश्न है आपसे -
    अभी कुछ दिनों पहले 'अमर उजाला ' समाचार-पत्र में 'कृष्णा सोबती जी' का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था जो अरुण आदित्य जी ने लिया था | उसमे उन्होंने निर्मला जी से अपनी किसी भी नाराज़गी को केवल एक अफ़वाह बताया है तथा किसी भी विवाद को सिरे से खारिज़ किया है | अब मुझे लगता है कि कृष्णा जी कोई राजनीतिज्ञ तो है नहीं जो अपनी बात से पलटे | और वैसे भी कृष्णा जी अपनी साफ़-गोई तथा निडरता ( अपनी निडरता की चर्चा उन्होंने उक्त साक्षात्कार में भी की है ) के लिए प्रसिद्ध है , इसीलिए यदि कुछ बात होती तो वो ज़रूर स्वीकार करती | परन्तु आपके इस लेख से स्पष्ट है कि कोई-न-कोई विवाद ज़रूर था | इस बात को अब आप ही स्पष्ट करे |

    जवाब देंहटाएं
  9. RAKESH JI IS PYARE SE LEKH KE LIYE BADHAI.AAPKA VIMARSH BADA SAHI HAI .AAPNE CHARCHA KE UPRANT YE PRATIKRIYA DI HAI, JO SATIK TO HAI HI TATHA TATHYAPARAKH BHI HAI.IS LEKH KO PADHKAR HI KITAB KI ANARGAT BAT SAMNE AA JATI HAI.BADHAI.

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.