सहजि सहजि गुन रमैं : देवयानी













देवयानी की कविताएँ सहजता से मन मस्तिष्क में अपनी जगह बनाती हैं. स्त्री जीवन के  चेतनअवचेतन के कई स्याह सफेद पक्ष यहाँ एक दूसरे में गुंथे हैं. 

आकांक्षा के सीमांत पर समकाल की विवशता का एक अजब उदास राग है. 

अपनी शर्तों पर अपनी जिन्दगी जीने का जीवट है इस कवयित्री में.

नई कविताओं के साथ  मेरे घर की औरतेंकविता श्रंखला भी यहाँ आप पढ़ सकेंगे.





देवयानी  की कविताएँ                                                                                                        




अन्तहीन हैं मेरी इच्छाएं

समय बहुत कम है मेरे पास
और अन्तहीन हैं मेरी इच्छाएं

गोरैया सा चहकना चाहती हूँ मैं
चाहती हूँ तितली कि तरह उड़ना
और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का

नाचना चाहती हूँ इस कदर कि
थक कर हो रहूँ निढाल

एक मछली की तरह तैरना चाहती हूँ
पानी की गहराइयों में

सबसे ऊंचे शिखर से देखना चाहती हूँ संसार
बहुत गहरे में कहीं गुम हो रहना चाहती हूँ मैं

इस कदर टूट कर करना चाहती हूँ प्यार कि बाकी न रहे
मेरा और तुम्हारा नमो निशान
इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त कि लाख खोजो
मुझे पा न सको तुम
फिर
कभी भी कहीं भी.




सृष्टि का भार

उसके माथे पर रखा है समूची सृष्टि का भार
कंधों पर उसके धरे हैं पहाड़
पीठ पर उठाये खड़ी है वह
चीड और देवदार
उसकी आंखों से छलकता है
समंदर

उसके हिस्से में टुकड़े-टुकड़े आता है आसमान
पहुंचता नहीं है उस तक बारिश का पानी
बस भीगते रहते हैं पहाड़,
चीड़ और देवदार

वह देखती है बारिश
अपनी सपनीली आंखों से
बढाती है हाथ
और डगमगाने लगता है
सृष्टि का भार
झुकने लगते हैं पहाड़

उसके कदमों को छू कर गुज़रती है नदी
उसके थके पाँव
डूब जाना चाहते हैं
उसके ठंडे मीठे पानी में
बारिश में देर तक भीगना चाहती है वह

कोई आओ
थाम लो कुछ देर सृष्टि
उठा लो कुछ देर पहाड़, चीड़ और देवदार
या भर लो उसे ही अपने भीगे दमन में इस तरह
की वह खड़ी रह सके
थामे हुए अपने माथे पर
अपनी ही रची सृष्टि का भार

__
::
दृष्टा नहीं हूँ मैं 
रचती हूँ सृष्टी को अपने अन्तस मे 
जैसे कोख में रचती हूँ सन्तान 
क्षण क्षण प्रतीक्षा में घुलती 
एक गहरी प्यास के साथ करती हूँ इन्तजार   
जब चीजें लें अपना पूरा रूपाकार 
छू लूं उन्हें  
आंचल में छुपा लूं 
कुछ देर तो भोग लूं सुख उन्हें रचने का 

::  
वहाँ बादल नहीं था 
उसकी इच्छाओं में बारिश थी 
वो सपनों में बादल देखती 
और बारिश का इन्तजार करती 

बादल को उसकी इस हरकत पर हंसी आती 
और उसे चिढाने में मजा आता 

वो मुंह फेरती और बादल पानी बरसा जाता 
इस तरह बरिश अक्सर 
या तो उसके चले जाने के बाद होती 
या उसके पहुंचने से पहले ही हो जाती 



:: 
वो इन्सान बुरा नहीं था 
बस गलत समय में  
गलत दुनिया के बीच आ गया 

उससे कोई उम्मीद मत रखो 
वो अपनी शर्तों पर जियेगा जिन्दगी 

::
सुनो 
मेरी देह में अब वह आकर्षण नहीं रहा शेष 
जिसके साथ तुम जा सको अपने रोमान्चक सफर पर 
ढल गई है यह बढ़ती उम्र के साथ 
अब नहीं है इसमे यौवन की स्फूर्ति और कसावट 

बस कुछ इच्छाएं हैं 
अब भी तनी हुई 
जिन्हें पूरा नहीं कर सकता कोई भी पुरुष 
जैसे कि पूरा और एकनिष्ठ प्रेम .



पेंटिग : सुनयना  मल्होत्रा




मेरे घर की औरतें
आज बहुत याद आ रही हैं वे
मेरे घर कि औरतें



बहन

एक बहन थी छोटी
उस वक्त की नीली आँखें याद आती हैं
ब्याह दी गई जल्दी ही
गौना नहीं हुआ था अभी
पति मर गया उसका

इक्कीसवीं सदी में
तेजी से विकासशील और परिवर्तनशील इस समाज में
ब्राह्मण की बेटी का नहीं होता दूसरा ब्याह
पिताभाईपरिवार के रहम पर जीना था उसे

नियति के इस खेल को
बीते बारह सालों से झेल रही थी वह
अब मर गई

फाँसी पर झूलने के ठीक पहले
कौनसा विचार आया होगा उसके मन में आखिरी बार

क्या जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं रहा था
जिसके मोह ने उसे रोक लिया होता

मात्र तीस साल की उम्र में
क्या ऐसा कोई भी सुख नहीं था
जिसे याद कर उसे
जीने की इच्छा हुई होती
फिर एक बार



मासी

बडी मासी से सबको डर लगता था
कोई भरोसा नही था उनके मिजाज़ का
घर की छोटी मोटी बातों में
सबसे अलग रखती थी राय

मासी अब नहीं रही
मासी की मौत जल कर हुई थी
कहते हैं उस वक्त घर में सब लोग छत पर सो रहे थे
सुबह चार बजे अकेले रसोई में क्या करने गई थी मासी
अगर पानी पीने के लिए उठी थी
तो चूल्हा जलाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी
क्या सच में मौसा तुम्हें छत पर न पाकर रसोई में आए थे
क्या सच में उनके हाथ आग बुझाने की कोशिश में जले थे...

आज बहुत बरस गुज़र गए
तुम्हारी मौत को भी कई ज़माने हुए

अपनी साफगोई
अपने प्रतिवादों की
कीमत चुकाई तुमने
दुनिया के आगे रोए नहीं तुमने अपने दुख
पति की शराबखोरी और बेवफायी से लड़ती थी अपने अन्दर
और बाहर सबको लगता था
तुम उनसे झगड़ रही हो

तुमने जब देखा किसी स्त्री को उम्मीद से
हमेशा उसे पुत्रवती होने का दिया आशिर्वाद
तुम कहती थी
लड़कियाँ क्या इसलिए पैदा हों
ताकि उन्हें पैदा होने के दुख
उठाने पडें
इस तरह



बुआ

सोलहवाँ साल
जब आईने को निहारते जाने को मन करता है
जब आँचल को सितारों से सजाने का मन करता है
जब पंख लग जाते हैं सपनो को
जो खुद पर इतराने
सजनेसँवरने के दिन होते हैं
उन दिनों में सिंगार उतर गया था
बुआ का

गोद में नवजात बेटी को लेकर
धूसर हरे ओढ़ने में घर लौट आई थी
फूफा की मौत के कारण जानना बेमानी हैं
बुआ बाल विधवा हुई थी
यही सच था

वैधव्य का अकेलापन स्त्रियों को ही भोगना होता है
विधुर ताऊजी के लिए जल्दी ही मिल गई थी
नई नवेली दुल्हन
बूढे पति को अपने कमसिन इशारों से साध लिया था उसने
इसलिए सारे घर की आँख की किरकिरी कहलाई
लेकिन लड़कियों से भरे गरीब घर में पैदा हुई
नई ताई ने शायद जल्दी ही सीख लिया था
जीवन में मिलने वाले दुखों को
कैसे नचाना है अपने इशारों पर
और कब खुद नाचना है




नानी

अपने से दोगुनी उम्र के नाना को ब्याह कर लाई गई थी नानी
ससुराल में उनसे बड़ी थी
उनकी बेटियों की उम्र
जब हमउम्र बेटे नानी को
माँ कह कर पुकारते थे
तो क्या कलेजे में
हाहाकार नहीं उठता होगा

कहते हैं हाथ छूट जाता था नाना का
बडे गुस्सैल थे नाना
समाज में बड़ा दबदबा था
जवानी में विधवा हो गई नानी
सारी उम्र ढोती रही नाना के दबदबे को
अपने कंधों पर

गालियों और गुस्से को हथियार की तरह पहन लिया था उसने
मानो धूसर भूरी ओढ़नी
शृंगार विहीनता और अभाव
कम पडते हों
अकेली स्त्री के यौवन को दुनिया की नज़रों से बचाने
और आत्मसम्मान के साथ जीने को

जवानी में बूढ़े पति
और बुढ़ापे में जवान बेटों के आगे लाचार रही तुम
छत से पैर फिसला तुम्हारा
फिर भी जीवन से मोह नहीं छूटा
हस्पताल में रही कोमा में पूरे एक महिने तक
आखिर पोते के जन्म की खबर के साथ
मिला तुम्हारी मृत्यु का समाचार




मामी

कोई भी तो चेहरा नहीं याद आता ऐसा
जिस पर दुख की काली परछाइयाँ न हों
युवा मामी का झुर्रियों से भरा चेहरा देखती हूँ
तो याद आते हैं वे दिन
जब इसके रूप पर मोहित मामा
नहीं गया परदेस पैसा कमाने
बेरोजगारी के दिनो में पैदा किए उन्होंने
सात बच्चे

चाची

चाची रेडियो नही सुनती है अब
नाचना तो जैसे जानती ही नहीं थी कभी

पडौस के गाँव से
बडे उल्लास के साथ लाई थी दादी
सबसे छोटे लाड़ले बेटे के लिए
होनहार बहू
गाँव भर में चर्चा में होते थे
स्कूल में गाए उसके गाने और उसके नाच
चाची
जो सब पर यकीन कर लेती थी
अब सब तरफ लोग कातिल नज़र आते हैं
या दिखाई देते हैं उसे
सजिशों मे संलग्न

कहा था बडे बाबा ने एक दिन
इस घर की औरतों के नसीब में नहीं है सुख
आज याद आ रही हैं वे सब
जिन्होंने अपने परिवार के पुरुषों
के सुखों के लिए लगाया अपना जीवन
और ढोती रही दुख
अपने अपने नसीब के. 


पेंटिग ; शिव कुमार गाँधी 


देवयानी
१३ दिसम्बर १९७२, जयपुर राजस्थान

दस वर्ष तक पत्रकारिता के दौरान फीचर लेखन तथा सिनेमा पर कालम लिखना.
दस वर्ष के अन्तराल के बाद फिर से कविताएँ लिखना.
प्रेम भाटिया स्मृति फेलोशिप के तहत विस्थापन पर शोध.
कुछ कविताएँ कथनप्रतिलिपि मे प्रकाशित.
कुछ छोटी पुस्तिकाएं नव साक्षरों के लिए.

वर्तमान मे शिक्षा मे काम.
वेब पोर्टल प्रतिलिपि से सम्बद्ध.
ई पता : devyani.bhrdwj@gmail.com

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  1. कहा था बडे बाबा ने एक दिन
    इस घर की औरतों के नसीब में नहीं है सुख
    आज याद आ रही हैं वे सब
    जिन्होंने अपने परिवार के पुरुषों
    के सुखों के लिए लगाया अपना जीवन
    और ढोती रही दुख
    अपने अपने नसीब के.
    acchi kayitayi hai

    जवाब देंहटाएं
  2. क्या ऐसा कोई भी सुख नहीं था
    जिसे याद कर उसे
    जीने की इच्छा हुई होती
    फिर एक बार...
    सभी कवितायें बेहद सुन्दर...सहज मन को छूती हुई
    आभार अरुण सर !!

    जवाब देंहटाएं
  3. बस कुछ इच्छाएं हैं अब भी तनी हुई जिन्हें पूरा नहीं कर सकता कोई भी पुरुष जैसे कि पूरा और एकनिष्ठ प्रेम .
    ..paripakv anubhootiyon ka sahaj sampreshan..badhai devyaani.aur aabar arun ji aapka

    जवाब देंहटाएं
  4. bahut atmiya aur antarang kavitayen

    जवाब देंहटाएं
  5. 'अंतहीन हैं मेरी इच्छाएं' सशक्त रचना है.'मेरे घर की औरतें'- सबकी सब मिलकर एक कोलाज बनाती हैं. जहां वैधव्य है, वंचना है, सहज स्त्रियोचित अभिव्यक्तोयों की अनुपस्थिति है, और सार रूप में पुरुष और स्त्री के जीवन ही नहीं नियति तक में फ़र्क़ है ऐसा जो मिटता सा नहीं दिखता.

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  6. कविताएँ पढ़ीं .. आत्मीय कविताएँ .. कमाल का जीवट और जीवन राग लिए हैं कविताएँ . बधाई देवयानी !

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  7. बहुत अच्छी लगीं कविताएँ... बधाई देवयानी जी!!

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  8. devyani kee kavitayen pahle bhi padh chuki hoon.. striyon ke uthhaye tamaam bojh swatah hee unki kavitaon me sarak aaye hain.. थाम लो कुछ देर सृष्टि
    उठा लो कुछ देर पहाड़, चीड़ और देवदार.. sab rishton par likhi hui series bahut aatmiy hai .. aisa hee hota hai. devyaani ko hardik badhai.

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  9. बहुत सुंदर कविताएँ.....वाह!!! बहुत खूब।
    दुआ करूँगा...ऐसे ही रचती रहें आप जी।

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  10. सभी कविताएँ बहुत सुन्‍दर हैं. यहाँ की गई यह टिप्‍पणी बहुत महत्‍वपूर्ण है. ''आकांक्षा के सीमांत पर समकाल की विवशता का एक अजब उदास राग है. अपनी शर्तों पर अपनी जिन्दगी जीने का जीवट है इस कवयित्री में.''

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  11. इस कदर टूट कर करना चाहती हूँ प्यार कि बाकी न रहे
    मेरा और तुम्हारा नमो निशान
    इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त कि लाख खोजो
    मुझे पा न सको तुम
    फिर
    कभी भी कहीं भी. kavitaen dard kahatee hain..............
    ..... ek gaharee vyatha ke sath sath jijeevisha ko abhivyakt kartee kavitaen

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  12. 'बहन' ने ही इतना झकझोड़ दिया कि आगे की कविताएँ बहुत मुश्किल से पढ़ पाया. देवयानी संवेदना के जिस स्तर से अपनी कविता के विषयों को देखती और महसूस करती हैं, वो अद्भुत है और जिन शब्दों में पिरोकर इन विषयों को अपनी कविता में प्रस्तुत करती हैं, वे बहुत आम और सहज हैं. कविता के क्षेत्र में इस तरह की योग्यता थोड़ा हैरान करती है. बिना 'कजरे की धार' और 'मोतियों के हार' के बहुत सुंदर और मर्मस्पर्शी कविताओं के लिए देवयानी को बधाई, अरुण जी का आभार इसे हम तक पहुँचाने के लिए.

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  13. सशक्त और सहज कवितायेँ ! जीवन के हों या मन के बड़े साफ़ चित्र ,जो पूरा असर छोड़ते हैं !

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  14. स्त्री के हर रिश्ते को जिस दर्द के साथ ...अपनी लेखनी में उतारा है आपने ...टिपण्णी देने के लिए भी शब्द जैसे कहीं खो से गए है ....बहुत सटीक रचना ..

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  15. इस अछूती बयानगी को कविताओं के रूप में पढ़ना आप सभी की तरह मुझे भी अच्छा लगता है, लेकिन इनकी अन्तर्वस्तु और पृष्ठभूमि अनजाने ही एक गहरे अवसाद में छो़ड़ जाती है....।

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  16. in auratonki chhavi sabhike parivaarki aurtonse bahut samy rakhti hai..aur unki chah, unki vyatha unke ant bahut milate julte hain..

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