परख और परिप्रेक्ष्य : तीन व्यक्तित्व

















सांस्कृतिक आंदोलन के तीन व्यक्तित्व
गोपाल प्रधान

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भगत सिंह और गांधी को परस्पर विरोधी माना जाता है. भगत सिंह का जन्मदिन 28 सितंबर है और गांधी का दो अक्टूबर. इस साल इन्हीं दोनों तिथियों के बीच महज पाँच दिनों के भीतर तीन लोगों की मृत्यु हुई. 28 सितंबर को गुरुशरण सिंह गुजरे, 30 को राम दयाल मुंडा और अंततः 2 अक्टूबर को कुबेर दत्त का निधन हुआ. इन तीनों के सामाजिक अस्तित्व में कुछ समानताएँ हैं. आज के भारतीय बौद्धिक समुदाय के प्रसंग में इनके स्मरण के खास मायने हैं.

गुरुशरण सिंह संगीत नाटक अकादमी रत्न अवार्ड से सम्मानित नाटककार थे, राम दयाल मुंडा राँची विश्वविद्यालय के कुलपति थे, कुबेर दत्त सर्वश्रेष्ठ टी वी प्रोड्यूसर सम्मान से नवाजे गए थे . तीनों का यह परिचय बेहद अधूरा और अत्यंत औपचारिक है. ध्यान से देखें तो तीनों ही अपनी तरह से सर्वोत्तम पश्चिमी शिक्षा और माहौल से परिचित थे. गुरुशरण जी अपने समय के सर्वाधिक उन्नत इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट भाखड़ा नंगल बाँध परियोजना से जुड़े हुए थे, राम दयाल मुंडा शिकागो और मिनेसोटा जैसे अमेरिकी विश्वविद्यालयों में अध्ययन अध्यापन किया था, कुबेर दत्त दूरदर्शन आर्काइव के डिजिटलाइजेशन का काम कर रहे थे . लेकिन इस समूचे परिचय का वैसा आतंक इन तीनों के लेखन और कर्म पर नहीं दिखाई पड़ता जैसा दो दर्जा अंग्रेजी पढ़े हमारे नकलची प्रोफ़ेसरों पर दिखाई पड़ता है. इन तीनों ने ही आधुनिक ज्ञान को आयत्त करके उसका उपयोग अपनी परंपरा को समृद्ध बनाने में किया.

यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि तीनों ही किसी न किसी रूप में जन संस्कृति मंच से जुड़े रहे जो वामपंथ की तीसरी धारा का सांस्कृतिक संगठन है. इसका एक कारण इस संगठन का व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन का दृष्टिकोण है . गुरुशरण जी इसके प्रथम अध्यक्ष थे. कुबेर दत्त इसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे थे और राम दयाल मुंडा उलगुलान के पहले समारोह के मुख्य अतिथि थे. ये तीनों ही अपनी जड़ों से इस कदर जुड़े हुए थे कि आज के मानसिक गुलामों को देखते हुए एक भिन्न जीवन दृष्टि इनसे सीखी जा सकती है . 


नुक्कड़ नाटक में कला का जिस पैमाने पर प्रवेश अस्सी के दशक में गुरुशरण जी ने कराया वह इन नाटकों की तत्कालीन एकरसता में ताजी बयार की तरह था. कुबेर दत्त ने अकेले दम पर दूरदर्शन को साहित्य संस्कृति संबंधी कार्यक्रमों का केंद्र बना दिया था. राम दयाल मुंडा झारखंडी संस्कृति से कुलपति रहते हुए भी जुड़े रहे और हिंदी में उनके काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुए. इसीलिए संगठनों के बाहर शिक्षा संस्थानों के सांस्कृतिक अध्ययन विभागों से यह अपेक्षा थी कि वे इन लोगों पर या तो आयोजन करेंगे या होने वाले आयोजनों में शरीक होंगे लेकिन जसम और जलेस को छोड़कर शायद ही कोई सांस्थानिक गतिविधि दिखाई पड़ी.

आजकल संस्कृति अध्ययन शिक्षण संस्थाओं का ताजा फ़ैशन है. तकरीबन सभी विश्वविद्यालय संस्कृति अध्ययन विभाग खोलने पर आमादा हैं लेकिन इस समय उनकी उदासीनता से यही संकेत मिलता है इनमें भी कुछ नया होने की बजाय पश्चिम की दिमागी गुलामी ही सिखाई जाएगी.







गोपाल प्रधान  : युवा आलोचक
आम्बेडकर विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में अध्यापन  

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  1. very sincere and committed persons ..respectful tributes

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  2. यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है कि तीनों ही किसी न किसी रूप में जन संस्कृति मंच से जुड़े रहे जो वामपंथ की तीसरी धारा का सांस्कृतिक संगठन है. इसका एक कारण इस संगठन का व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन का दृष्टिकोण है . गुरुशरण जी इसके प्रथम अध्यक्ष थे. कुबेर दत्त इसकी राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे थे और राम दयाल मुंडा उलगुलान के पहले समारोह के मुख्य अतिथि थे. ये तीनों ही अपनी जड़ों से इस कदर जुड़े हुए थे कि आज के मानसिक गुलामों को देखते हुए एक भिन्न जीवन दृष्टि इनसे सीखी जा सकती है .

    ye ek jaruri baat hai .. nformative lekh hai ..naman.

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